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सदभावना के साधक "महेन्द्र " की कलम सेदंगे और मैं.....

2,नवम्बर सन 1990, संध्याकाल, हिन्दू-मुसलमानों के बीच तनाव,कारण राम जन्मभूमि -बाबरी मस्जिद-विवाद" सभी समाचार पत्र ने बांग्लादेश में हिन्दू मंदिर तोड़े जाने का समाचार प्रकाशित किया, तनाव ग्रस्त शहर में हिंसा का तांडव शुरू हो गया, एक संप्रदाय द्वारा दूसरे संप्रदाय के लोगों की दुकानों, घरों में आगजनी लूटपाट की वारदातें शुरू हो गई.

किसी विध्न संतोषी ने एक भयंकर खबर शहर में फैला दी की बूढी खेरमाई का सैकड़ों वर्ष पुराना हिन्दू धर्म स्थल मुसलमानों ने तोड़ दिया है, और पंडे की हत्या हो गई है. बस फिर क्या था, हिन्दुओं द्वारा मस्जिदों पर हमले,आगजनी, और हिंसा वारदातें शुरू हो गई. करोड़ों रुपये की क्षति हुई शहर में अनिश्चित काल के लिए कर्फ्यू लगा दिया गया.फिर भी अफवाहें और हिंसा रुकने का नाम ही नही ले रही थी. बात हर जवान से बड़ी होकर ही निकलती कहीं हत्याओं की झूठी ख़बरें थी तो कहीं मंदिर,मस्जिद में बम विस्फोट की. समाचार पत्रों के लेखन मात्र से कार्य सिद्ध नही हो रहा था. आवश्यकता थी सचित्र प्रकाशन की.

मुस्लिम बहुत क्षेत्र में स्थित बूढी खेरमाई के मंदिर तक जाना असंभव सा प्रतीत हो रहा था. अफवाहें इस कदर उड़ चुकी थी की किसी हिन्दू का उस क्षेत्र में प्रवेश करना और जिन्दा वापिस आना स्वयं अपनी जान जोखिम में डालने जैसा था. हिन्दू बस्ती से दूर विशाल तनावग्रस्त मुस्लिम बस्ती में पुलिस द्वारा भी हिन्दुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. कर्फ्यू-पास भी उन क्षेत्रों में प्रतिबंधित थे,ऊपर से स्वयं की जान का खतरा. मैंने पुलिस थाना हनुमान ताल से बात की और उन क्षेत्रों में प्रवेश की अनुमति चाही जैसा मुझे मालूम था स्पष्ट इन्कार के साथ साथ चेतावनी भी दी गई की मैं किसी भी हालत में उन क्षेत्रों में प्रवेश न करू. एक ओर मेरु जान का डर था तो दूसरी ओर हजारों जाने खतरे में थीं. हिंसा की वारदातें बढती ही जा रही थीं, और लग रहा था की बस यदि किसी ने भी हिम्मत से काम न लिया टो शाहर लाशों से पट जाएगा.

तभी विचार आया की "किसी" में,मैं, क्यों नहीं ईश्वर का नाम लेकर घर से कैमरा सम्हाले बाहर आया. रास्ते भर पुलिस को पूर्व संबंधों और कर्फ्यू पास का वास्ता देकर आगे बढ़ा. मुस्लिम क्षेत्रों में प्रवेश के पूर्व एक बार मन किया कि वापस चलूं. पर वापस आज तक लौटा नही था.

सन्नाटे और तनाव के बीच बस्ती में प्रवेश करते ही मुसलमान युवकों की एक हथियार बंद टोली ने सबसे पाहिले घेरा, कुछ अनर्थ होता इसके पूर्व हनुमानताल मस्जिद से मेरे किसी पूर्व परिचित ने पहिचान कर आवाज दी,बस काम बन गया मैंने उत्तेजित युवकों को अपना लक्ष्य बताया और समझाया कि मेरे आने का तात्पर्य क्या है, कुछ समझे, कुछ बिगड़े, कुछ बिखरे पर बुजुर्गों ने मेरी मदद की. चंद मिनटों में मैं,अपने काम को अंजाम दे कर आ रहा था तभी किसी ने मुझे सरकारी आदमी जान कर मेरा कैमरा छीनने की कोशिश की. अपना नाम मात्र बताने से वो जान गये कि मैं कौन हूं. हर क्षण मौत का साया और वीरान सड़कों पर पैदल मैं, काम पूरा करते ही मैं पुलिस के घेरे में था मुझे फिरसे चेतावनी के बाद घर वापस जाने के "आदेश" दे दिये गये.

फोटो उतरी बनी प्रकाशित हुई और शहर को अफवाहों से चैन मिला. अमन कायम हुआ. सौहाद्र बढ़ा. शांति बहाल हुई. मुझे संतोष है कि मैंने दोनों सम्प्रदायों को एक बड़े संकट से बचाने में "थोड़ी" सी मदद की.


"साम्प्रदायिक दंगे, मैं क्या कर सका अमन के लिए"

अभी 1990 बीते दो वर्ष ही तो हुए थे की विदा लेते 1992 ने फिर अपना साम्प्रदायिक रंग दिखाना शुरू कर दिया. रैली, यात्रायें, घोषणाएं और प्रतिबंधों के बीच फिर वही "कार सेवा". कार सेवा होगी या नहीं इस पर चर्चाएं आम थी, पर होगी तो इतनी विधसक होगी इसकी कल्पना किसी ने नही की थी. वहां अयोध्या में ढांचा टूटा कि देश में फिर भाई चारे और सांप्रदायिक सदभावना की दीवार भी ढह गई. शुरू हो गया तोड़फोड़, आगजनी, लूटमार का दौर. उस विकट घड़ी में आग में घी डालने का काम करती हैं अफवाहें. ना सिर ना पैर पर पंख पसारे ये अफवाहें हर एक जवान से लंबी होती कुछ कर गुजरने के बाद ही शांत होती हैं. जिसका परिणाम कभी अच्छा नहीं होता. "संस्कारधानी" जबलपुर में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा की अफवाह का पंछी उड़ान भर कर सीधे बूढ़ी खेरमाई के मंदिर जा बैठता है और शुरू हो जाती है गलत और दुर्भावपूर्ण चर्चाएं जो न सिर्फ तनाव पैदा करती हैं वरन दोनों संप्रदायों को हिंसा के लिए उकसाती हैं.

जबलपुर की अफवाहों का केन्द्र बूढ़ी खेरमाई मंदिर ही होने के कारण भी हैं, चूकिं सैकड़ों वर्ष पुराना यह खेरमाई का मंदिर हिन्दू समाज में गहरी आस्था का प्रतीक है. नौरात्री में हजारों स्त्रियाँ प्रातः 4 बजे से ही जल चढ़ाने वहां जाती हैं और इच्छा पूर्ती हेतु मान्यता का यह केन्द्र है. यानी सभी कुछ जो एक सिद्ध मंदिर में होता है. वही दूसरी ओर यह मंदिर मुस्लिम बहुल्य क्षेत्र में है, यहाँ चारों ओर मुस्लिम आबादी है कोई हिन्दू परिवार आसपास भी नही रहता. मुस्लिम बाहुल क्षेत्र और सिद्ध मंदिर बस विघ्न संतोषियों को यही टो चाहिए अफवाहें फ़ैलाने, कुछ हुआ नही की बूढ़ी खेरमाई को क्षतिग्रस्त करने की अफवाहें फैलने लगती है और तनाव हिंसा रोके नही रूकती.

6 दिसंबर को ऐसा ही हुआ वहाँ ढांचा टूटा कि यहाँ विघ्न संतोषी असामाजिक तत्वों ने अफवाह फैला दी की यहाँ बूढ़ी खेरमाई का मंदिर टूट गया. पंडा बाबा की हत्या हो गई. उसी समय मुस्लिम क्षेत्रों में अफवाह थी रानीताल स्थित मस्जिद और दारुल उलुम को क्षतिग्रस्त कर दिया गया है. भयंकर तनाव, कर्फ्यू और हिंसा का नंगा नाच यानि सच्ची जानने का कोई भी सहारा नही था. विगत 35 वर्षों से पत्रकारिता एवं प्रेस फोटोग्राफी में सक्रीय होने से मैं इस शहर की नब्ज खूब अच्छी तरह से पहचानता हूं, मैं जानता था की वर्ष 1990 की तरह ही विघ्न संतोषियों और अफवाह उड़ाने वालों का निशाना फिर से बूढ़ी खेरमाई का मंदिर होगा. विवादास्पद ढांचा ढह जाने की खबर से इस बार तनाव और खतरा कुछ ज्यादा ही था,पुलिस का पहरा, वाहन निषेध और ऊपर से कर्फ्यू. संदिग्ध व्यक्ति को देखते ही गोली मारने के आदेश, यानी यहाँ कुआं तो वहां खाई. मैंने विचार किया कि यदि जाता हूं टो मेरी जान को खतरा है और नही जाता तो हजारों जानों को खतरा है. खूब सोचा विचार किया फिर निकल पड़ा अपने मिशन पर.

किस तरह रेंगते, बचते और समझाते दंगाईयों से निपटते मैं बूढ़ी खेरमाई के मंदिर पहुँच ही गया पर रास्ते में अनेक मुसलमान युवकों ने बताया कि खबर है कि जबलपुर स्थित दारुल ऊलुम क्षतिग्रस्त कर दिया गया है. मेरा पूरा विश्वास था कि इस मुस्लिम क्षेत्र में जो रानीताल मस्जिद और दारुल ऊलुम क्षतिग्रस्त करने की खबर है यह सरासर निराधार है पर मात्र बूढ़ी खेरमाई का मंदिर सुरक्षित है यह सचित्र प्रमाणित कराकर हिन्दुओं को टो शांत किया जा सकता था पर मुस्लिम युवा कैसे शांत होंगे.

बूढ़ी खेरमाई से लौटकर मैंने जिलाध्यक्ष से उपरोक्त अफवाह की चर्चा की और जाना कि दोनों धार्मिक स्थल सही सलामत हैं. मेरे "अफवाह खंडन" अभियान का दूसरा चरण अब फिर चालू हो गया. गश्त के लिए निकली एक पुलिस जीप ने मेरा अभियान जानकर और मेरी पुरानी छवि याद कर मुझे रानीताल पर उतार दिया. मैंने मस्जिद के चित्र उतार कर मैंने दारुल ऊलुम के चित्र उतारे, उस वक़्त मैं पुलिस के घेरे में था यानी पुलिस की नजरों में एक "संदिग्ध व्यक्ति था" जो सांप्रदायिक दंगों के दौरान एक विशेष संप्रदाय के धार्मिक स्थल के पास कर्फ्यू के दौरान घूम रहा था.".

लंबी रौबदार पूंछतांछ, डंडे का भय, और गोली मार देने की धमकी के साथ पूंछताछ, जो समय के साथ ठीक भी थी. नगर के बाहर की फ़ोर्स न तो मेरे नाम से परिचित थी और न काम से. मेरे परिचय पत्र, कैमरा जैसी चीजें मेरे बचाव के लिए काफी न थी. तभी सी.एस.पी. की जीप ने मुझे पहिचाना मेरा उद्धेश्य जाना और पूरा सहयोग किया. दूसरे दिन सारे अखबारों ने मेरे चित्रों को प्रकाशित कर शहर की अफवाहों को शांत करने के मेरे जान जोखिम मिशन में पूरा सहयोग किया.

इस तरह एक बार फिर मैं दोनों कोमों के काम आया

महेन्द्र चौधरी,